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परिवार, पास्ट और पाप- पुण्य के कंधों पर सवार है 'ब्रीदः इंटू द शैडोज' की कहानी

'ब्रीद : इनटू द शैडोज' अभिषेक बच्चन का डिजिटल डेब्यू है। वह एक मनोचिकित्सक अविनाश सब्बरवाल की भूमिका में हैं। अविनाश की 6 साल की बेटी के किडनैप के नौ महीने बाद किडनेपर का एक कॉल आता है जिससे उनकी जिंदगी बदल जाती है। किडनैपर उनके बेटी के बदले एक शख्स का मर्डर करने के लिए कहता है पर उसे ऐसे दिखाना होगा कि उसका कत्ल नहीं, बल्कि वह अपने ही गुस्से और वासना का शिकार हुआ है। यहां अविनाश के पास बात मानने के अलावा कोई च्वॉइस नहीं है। अविनाश चूंकि पुलिस विभाग के लिए मनोचिकित्सक का काम करता रहा है, इसलिए पुलिस भी इस केस में उसकी मदद करती है। ब्रीद के पहले सीजन के पुलिस अफसर कबीर सावंत इस केस में भी अविनाश की मदद के लिए सामने आते हैं।

पिछली बार की तरह इस बार भी लीड किरदार अपने परिवार के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहा है। थीम उसी पर है। पिछली बार की तरह इस बार भी डायरेक्टर मयंक शर्मा ने यह जस्टिफाई करने की कोशिश की है कि अगर परिवार को बचाने के लिए किसी का खून भी होता है तो वह शायद गलत नहीं है। मयंक शर्मा ने किरदारों में स्प्लिट पर्सनैलिटी का भी उपयोग किया है। ताकि सस्पेंस क्रिएट किया जा सके।

मायथोलॉजिकल कहानियों के दर्शन का इस्तेमाल अविनाश, कबीर सावंत, सिया सब्बरवाल, आभा सब्बरवाल, शेरिल समेत अन्य किरदारों के काम को सही ठहराने के लिए किया गया है। हालांकि वो सतही से बन पड़े हैं। उस तरह की फिलॉसफी इंप्रेस नहीं कर पाती है।

ग्रे शेड में नहीं दिखी अभिषेक की दमदार एक्टिंग

अभिषेक बच्चन अपने रोल में अनुशासित भाव से रहे हैं, मगर जब जब ग्रे शेड में वह आते हैं, वहां उनका एफर्ट जरा कम नजर आता है। नित्या मेनन ने आभा सब्बरवाल के तौर पर औसत काम किया है। मिशन मंगल में वह ज्यादा अच्छी लगी थी। अमित साध वैसे ही रहे हैं, जैसे पिछले सीजन में कबीर सावंत के रोल में थे। शेरिल के तौर पर सेक्स वर्कर के रोल में हैं सैयामी खेर। उनके पास करने के लिए कुछ खास नहीं था।

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शो में जो विलेन है,उसने शायद डेविड फिंचर की सेवन और टॉम हैंक्स की इनफर्नो देखी थी। वह ठीक उसी तरह लोगों के खून करवाता है, लगे कि क्रोध, वासना, झूठ ने उसकी जान ली है, जैसा उन दोनों फिल्मों में विलेन हत्या नहीं करता और करवाता है। मयंक शर्मा की यह क्राइम थ्रिलर कहीं-कहीं फैमिली ड्रामा में घुल और भूल जाती है। भटक जाती है। स्प्लिट पर्सनैलिटी का मयंक शर्मा सही से उपयोग नहीं कर पाए हैं। थ्रिलर में हर एक सीन ठोस तर्क की मांग करता है। यहां पर जैसे ही स्प्लिट पर्सनैलिटी का प्लॉट आता है, तर्क गायब हो जाता है। किरदारों के साथ वह अकस्मात होने वाली घटनाओं की बमबारी करने लगते हैं। वह बड़ा ही बचकाना सा लगने लगता है।


 
 from Dainik Bhaskar

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